घाट का पत्थर
दोस्तों ! मैं हूँ ,एक घाट का पत्थर ,
बड़ी सी एक ,नदी किनारे पड़ा हुआ ,
साफ - सुथरा और ,चिकना - चिकना सा ,
नदी के पानी ने ,बार - बार टकरा कर ,
मुझे गोल -गोल ,और चिकना बना दिया ||
मैं हूँ बिल्कुल शांत सा ,
कुछ भी नहीं बोलता हूँ मैं ,
मगर नदी के हजारों नखरे ,
मैं हूँ सह जाता ,और उफ़ भी नहीं करता
नदी के पानी से ,घिस - घिस कर ,
कुछ बरसों में ,मैं ख़त्म ही हो जाऊँगा ,
जीवन मेरा ऐसे ही बीता है ,
और ऐसे ही बीतेगा दोस्तों ||
शायद पचास या साठ बरस बाद ,
यदि आप इस घाट पर ,आओगे जो ,
तो हो सकता है ,मैं गायब हो जाऊँ ,
और आप लोगों को ,ना मिलूँ दोस्तों ||
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