'डगमगाते कदम'
हरियाली धूप उतरी जब आँगन में ,
चिङियों की चहचहाहट को सुन ,
दो डगमगाते कदम बढ़ चले हाथ बढ़ाते ,
साथ ही नन्हीं - नन्हीं चिङियों को उङाते ,
उङती चिङियों को देख खिलखिलाते ,
उम्मीद के छोर से बँधी एक आस ,
शायद आ जाए एक चिङिया हाथ ,
हर दिन यही मंजर हर दिन यही हँसी ,
देख कर सभी होते रहे निसार ,
जीवन का है यही तो सार ,
अपने ही बचपन को देखता है मानव ,
अपने घर के आँगन में ,बेटे के रूप में ,
कल्पना कर लेता है ,
ये दो डगमगाते कदम कभी उसके थे ।
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