'नदिया'
पवर्तों के शिखर से उतर कर,
धरा के प्रांगण में , टेढ़े-मेढ़े रास्तों से गुजर कर,
किनारों पर हरियाली बिछाती,
ये नदी,
बहती जा रही है , बहती जा रही है ।
अपने कलरव से वातावरण को,
गुंजायमान करती , हर बाधा पार करती,
ये नदी,
बहती जा रही है, बहती जा रही है ।
सूरज की किरणों को परावर्तित कर,
चहुँ ओर आलोक बिखराती,
ये नदी,
बहती जा रही है , बहती जा रही है ।
अपने सीने पर बहने वाली नावों में,
बैठे मुसाफिरों को पार लगाने वाली,
ये नदी,
बहती जा रही है , बहती जा रही है ।
दुनिया की गमों रूपी गंदगी को,
अपने में समेटे,
ये नदी,
बहती जा रही है , बहती जा रही है ।
हे मानव ! देख इस नदी को ,
सीख इस नदी से,
हर बाधा से गुजर कर,
हरियाली बिखरा दे , खुशहाली फैला दे ।
प्रकाशित कर इस जहाँ को ,
अपने गुणों के प्रकाश से,
रास्ता दिखा भूले को,
समेट दूसरों के दुख अपने दामन में,
तू शक्तिशाली है,
प्रकृति को जान ,
समय को पहचान ,
अपने अहं को छोङकर ,
मैं को भूलकर,
अपनी खिलखिलाहट से प्रकृति को,
गुंजायमान कर दे , गुंजायमान कर दे ।
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