बदला प्रकृति का
ब्रह्मांड के रचेता ने ,बनाया जब ये संसार ,
बने तब बहुत से सूरज ,किया उजाला उनमें ,
अनगिनत सूरज के चारों ओर ,घूमें बहुत से गोले ,
बना एक सौर मंडल अपना ,बनी धरा अपनी उनमें |
बाकि अन्य ग्रह कहलाए ,घूमते जा रहे सभी ,
कुछ पास सूरज के ,और कुछ दूर सूरज से उनमें ,
जो ग्रहों के चक्कर काटें ,उनका नाम उपग्रह था ,
एक चमकीला ,मुस्कुराता ,चाँद भी था उनमें |
सूरज की धूप ,गर्मी से ,धरा पर सागर भी गहराए ,
कभी बादल बने ऊँचे ,और धरा पर नीर बरसाए ,
कभी ठंडी पवन के झोंके ,धरती पे लहराए ,
कभी तूफ़ान ,चक्रवात भी ,यहाँ बवंडर मचाए |
उपजे जीव -जंतु भी ,साथ उनके ठिकाने भी ,
वो थे निर्भर उन पेड़ -पौधों पर ,जो उनसे उपजे थे पहले ,
कुछ थे धरा के वासी ,कुछ पानी के वासी थे ,
मगर सारे के सारे ही ,एक दूजे के साथी थे |
फिर आया मानव धरा पर ,बना वो साथी इन सबका ,
मगर फिर सोच ने उसकी ,बिगाड़ा साथ को इनके ,
लीं सभी सुख सुविधा उसने ,इसी प्रकृति से ,
मगर साथी नहीं बनकर ,एक दोस्त ना बनकर ,
समझा उसने खुद को मालिक ,किया शोषण प्रकृति का |
आज प्रकृति भी समझी है ,मानव का ये रवैया ,
तभी उसने भी रूप बदला ,आई क्रोध में वह भी ,
रुलाया उसने मानव को ,ले रही है वह बदला ,
सब कुछ खो बैठेगा मानव ,अगर वह अब नहीं संभला |
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