रात भर
चंद्रमा झाँका गगन में ,मुस्का के झाँका गगन में ,
सखि ! तुम कहाँ छिपी हो ?
खिड़की में तो आओ जरा |
निकली मैं खिड़की के पास ,
मुस्कुरा उठी मैं देख के चंद्रमा ,
अरे! सखा तुम आ गए हो ,
हँस पड़ा मेरा सखा चंद्रमा |
कैसी हो सखि तुम ? बहुत दिन हुए मिले तुमसे ,
हाँ ! सखा आए नहीं हो तुम ,
इसी से हम मिल ना पाए तुमसे |
मेरा तो सखि हर दिन ऐसा ही ,
हर दिन नहीं आ पाता हूँ ,
तुम भी तो नहीं खिड़की पे आतीं ,
क्योंकि मैं तो रोज़ नहीं आता हूँ |
छोड़ो ये बातें सखा तुम ,
अंदर आओ इसी खिड़की से तुम ,
दोनों मिल बैठेंगे रात भर ,
बातें खूब करेंगे रात भर |
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