इंसान सी
समीप आती ये पहाड़ियाँ, पास बुलातीं ये पहाड़ियाँ ,
पुकार रहीं पास आओ , चली आओ ,चली आओ |
बढ़ाओ कदम , थामो हाथ , रखो कदम , लो सहारा ,
तभी चौंकी स्पर्श से ,
अरे ! ये तो वहाँ पर उगे ,पेड़ों की डालियाँ थीं |
जो छू रहीं थीं दोनों ओर से ,
मानो दे रहीं हों सहारा , थाम रहीं हों हाथ मेरा |
ये हाथ ही तो थे , उन पहाड़ियों के ,
जो पुकार रहीं थीं मुझे , दे रहीं थीं न्यौता मुझे ,
अपने पास आने का ,अपने प्यार में खो जाने का |
कौन कहता है उन्हें , निर्जीव चट्टानें , रेत की पहाड़ियाँ ,
अरे ! ये तो हैं जीवंत , पुकारतीं ,
बातें करतीं पहाड़ियाँ |
किसी को भी देख , अनजाना बनाता मानव ,
नज़रें चुराता मानव ,
वह जो इंसान न बन पाया मानव |
पर ये वो इंसान सी हैं पहाड़ियाँ ,
देखते ही पुकार उठतीं हैं , बाँहें फैलाए मिलती हैं ,
हर ओर ये पहाड़ियाँ , हर ओर ये पहाड़ियाँ |
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