कढ़ी
कढ़ी रे कढ़ी ,तू कहाँ पे चढ़ी ?
कड़ाही से तू ऐसे ,कैसे उबल पड़ी ?
स्वाद से तो तू है चटपटी सी ,
पकौड़ियों में तू है लटपटी सी ,
मुँह में जो जाए ,घुलती सी जाए ,
चावलों के साथ तो ,तू खिल पड़ी |
रंग तेरा खिला ऐसा ,बसंत की बयार जैसा ,
खिलता सा रंग है ,स्वाद की उमंग है ,
तेरे जैसी तो ,कोई ना बूटी ,ना जड़ी |
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