मिला बचपन ( रत्नाकर )
एक लड़की नादान सी ,शैतान सी ,
पहुँच गई उड़ते हुए बादलों के पार ,
ढूँढते हुए अपने नादान बचपन को ,
चाँद के देश में बादलों के पार |
बचपन तो पता नहीं कहाँ खो गया ?
सारी नादानियाँ अपने साथ ले गया ,
शैतानियों के साथ खिलखिलाहटें भी ले गया ,
बादलों के पार सूरजमुखी का बगीचा मिल गया |
बादलों से उतर कर चली नीचे को ,
सूरज की रश्मियों ने उजालों से भर दिया ,
समंदर की लहरों ने उछालों से भर दिया ,
सूरज और समंदर को मुस्कुराहटों से भर दिया |
समंदर के साथ रेत भी था दोस्तों ,
उसमें भी अनगिनत लहरें छिपीं थीं ,
मगर ये लहरें उछालों से ना भरीं थीं ,
सूखे - सूखे ,ऊँचे -ऊँचे टीलों से भरीं थीं |
पवन ने तेज होकर रेत को उड़ाया ,
रेत ने उड़ -उड़ कर बवंडर बनाया ,
तभी बादलों की समझ में बात आई ,
छाकर गगन में सूरज को छिपाया |
वर्षा को नीचे भेजा बवंडर को दबाया ,
तभी बचपन आया रेत का घरोंदा बनाया ,
घरोंदे को बनाकर लड़की ने उसको देखा ,
मुस्कुराहटों से उसने घरोंदे को सजाया |
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