जलधार
पहाड़ों का सीना चीरकर ,जलधारा झरी झर -झर ,
नाम मिला इस जलधार को, झरना कहा जलधार को,
जलधार थी बर्फीली ,बर्फ का पिघला स्वरूप ,
स्वच्छ जल की धार थी ,उसका स्वरूप था अनूप |
वो ना रुकी चट्टान से ,वो ना रुकी पहाड़ से ,
बहती गई लगातार ,रास्ता अपना बनाती गई ,
शीशे जैसी पारदर्शी ,शीशे जैसी स्वच्छ ,
चेहरा उस में देखकर ,कर सकते हैं मेकअप |
जलधार जब झरना बनी ,नीचे को वो गिरती गई ,
नीचे बही नदिया के जैसी ,आगे को बढ़ती गई ,
जिधर भी मिला रास्ता ,उधर ही वो बढ़ गई ,
उसके दोनों किनारों पर ,हरियाली छा गई |
मैंने तो जब उसको देखा ,दिल मेरा डोल गया ,
कदम बढ़े उस ओर को,जल में मेरा कदम गया,
ठंडी सी सिहरन से मैं,अंदर तक तब काँप गई,
मगर लंबी साँसें लेकर ,जल में मैं तो उतर गई |
खड़ी हो जल के अंदर ,दिल भी मानो भीगा था ,
तनमन जल के अंदर थे,ख़ुशी का मानो सागर था,
ऐसी खुशी ना पाई थी ,पहले कभी ,पहले कभी ,
आज मिली है मुझको जो ,पहली - पहली बार |
आसपास की हरियाली ,नई -नई सी ,सुन्दर सी,
दिया रूप उसने जलधार को ,सुंदर और प्यारा सा ,
जलधार थी पूरक हरियाली की ,
हरियाली थी शुक्रगुज़ार जलधार की,उस झरने की |
यही है दोस्तों प्रकृति ,स्वरूप है उसका अनोखा ,
प्रकृति खिल जाती है अगर ,उसे मिले एक मौका |
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