दो गुनी
ख़ुशी छिपी है मन में तेरे ,फिर क्यूँ ढूँढे तू बाहर?
क्यों तू हाट में खोजे उसको?
क्यों ढूँढे जंगल - जंगल ?
सबसे आसां रस्ता पकड़ के ,
ढूँढ ले तू मन के अंदर |
खुशियों का जखीरा उपजा ,मानव तेरे ही अंदर ,
एक -एक कर बाहर निकाल ,
उपजेंगी मुस्कानें होठों पर |
कल एक मुस्कान उगी थी ,उसे ही तू दो गुना कर ,
ऐसे ही मुस्कान उगेंगी ,
हर दिन दो गुनी हो होकर |
No comments:
Post a Comment