चिट्ठी
बचपन में यारों ,चिट्ठी ही लिखते थे हम ,
दोस्त हों या सखि ,सहेली ,उसीके द्वारा ,
संदेसा भेजते थे हम |
टेलीफोन तो दफ्तरों और,बड़ी दुकानों पर ही होते थे ,
उन्हीं के मालिक फोन के द्वारा ,संपर्क किया करते थे |
जब हमारी हुई मंगनी ,अब मंगेतर से बात कैसे हो ?
सोचा बहुत ,मगर कुछ हल ना निकला ,
तब आई उधर से चिट्ठी ,अहसास नया जागा ,
चिट्ठी का जवाब देने का ,कुछ बातें लिखने -सुनने का |
सिलसिला ये दोस्तों ,लंबा ही कुछ चला ,
कुछ समझने का ,तो कुछ समझाने का ,
चिट्ठी की अहमियत का ,तब पता हमें चला |
उस समय की वो चिट्ठियाँ ,संभालीं हैं आज तक ,
कभी -कभी उन्हीं को ,फिर से पढ़ लेते हैं ,
कुछ हसीन पल और ,मीठी यादें ताजा कर लेते हैं |
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