रात में
सखि री ! चाँद आधा ही उतरा रात में ,
खिड़की मेरी खुली थी ,
वो आया उसमें से अंदर ,
चाँदनी को लेकर वो आया साथ में |
चाँदनी ने जो चमकाया मेरे कमरे को ,
नींद खुल गई थी मेरी भी ,
देखा जगमगाता कमरा अपना ,
और चाँद ,चाँदनी थे साथ में |
तभी झिलमिलाते तारे भी ,अंदर आए ,
उन्होंने कमरे में उधम मचाया ,
मेरे बच्चे भी जागे ,उठ बैठे ,
खेले वो खूब ,तारों के साथ में |
चंद्रमा चाहे आधा था ,
मगर चाँदनी बहुत चमकीली थी ,
मन किया कि सारी चाँदनी ,
भर लूँ मैं पूरे आँचल में |
मगर चाँदनी तो ऐसी थी ,
निकल गई छन्न से ,आँचल से ,
मगर आँखों को मेरी चमका गई ,
आज भी वही चमक है ,मेरी आँखों के साथ में |
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