अंतर्मन
वो खामोशियाँ ,अंतर्मन में जो बसीं ,
वो सरगोशियाँ ,अंतर्मन में जो बजीं |
संघर्षों में जूझते ,अंतर्मन की आवाजें ,
कहती हैं इन्हीं में ,तो नई कलियाँ खिलीं |
खामोशियों में ही ,तो कभी ग़म मिला ,
और कभी तो ,खुशियाँ ही खुशियाँ मिलीं |
कभी हम किसी के ,बंधन में बंध गए ,
और कभी तो हमको पूरी आज़ादी मिली |
कभी तो प्यार से ,हाथ अपना थामा किसी ने ,
और कभी तो उसी ,हाथ से झटकन मिली |
काश अंतर्मन डूब जाता ,किसी के प्यार में ,
चाहे खामोश रहे ,चाहे सरगोशियाँ करे ,
वहाँ से ना आज़ाद होता ,हाथ थामे चलता ,
और कभी तो कहता ,आज मेरी दुनिया सजी |
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