अंकुर
रचयिता ब्रह्माण्ड के ,
क्यों नहीं अलख जगाया प्रेम का ,
मानव हृदय में ?
क्यों भरी गूँज बारूद की ,
मानव मस्तिष्क में ?
तुम तो बने देवता ,
इस सृष्टि के सृष्टा !
मानव को तो इन्सान बना देते |
ध्वंस के रास्ते से डिगा देते |
प्यार की कलियों को ,
मानव ह्रदय में खिलाकर ,
इस सृष्टि को गुलशन में बदल देते |
आज भी चाहो तो
रोक दो इस विनाश को ,
बदल दो मानव की ,
विनाशकारी सोच को ,
उगा दो प्रेमांकुर मानव हृदय में ,
रुकवा दो प्रकृति के विनाश को ,
फिर से पवन प्राण दे नए ,
कल - कल करती सरिताएं ,
अमृत पिलातीं जाएं ,
कारे - कजरारे मेघ .
नव पल्लव उगाएं ,
रवि की स्वर्णिम रश्मियों के जाल से ,
दमकती पृथ्वी पर जीवन सुमन मुस्कुराये |