मानव'
रचयिता ब्रह्माण्ड के ,
तुम्हारी एक रचना ,
मानव ने,
बदल डाला तुम्हारी रची हुई,
पृथ्वी को,
तुम्हारे दिए मस्तिष्क की सोच ने,
बिन पंख उङाया मानव को ।
इन्हीं सोचों ने,
अंधियारी रातें जगमगाईं,
वीराने में कलिंयाँ मुस्कुराईं ।
अपने घर में बैठा मानव,
कहीं दूर की सुनता है,
आविष्कारों के जरिए ही,
दूर देख वो पाता है ,
दूरदर्शन पल भर में ही,
पूर्ण विश्व को छोटा कर,
समेट लेता स्वयं में,
तो कम्प्यूटर सभी क्षेत्रों के,
ज्ञान को सीमित कर,
प्रदत्त करता पल दो पल में,
इन सब से आगे आज मानव,
रोबोट बना रहा है,
अपने जैसा humanoid बना कर,
विश्व को दिखा रहा है ।
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