'साँसों  का  परिसर '
  
समय चक से बँधे हुए हम,
भोर की लाली छाई है ,
उगता है रवि धीरे - धीरे ,
कोई मस्ती में झूमा है,
बहती नदिया के तीरे,
इन सबसे अनजानी सी,
पवन उङ रही सर - सर - सर ।
काया - कल्प हुई मेघों की,
कुछ उङे कुछ बरस गए,
देख - देख रस्ता राही का,
राहों के मन तरस गए,
कोई भी जाना - अनजाना चेहरा,
बन जाएगा अपना सहचर ।
                                
समय चक से बँधे हुए हम,
                    जीवन पथ पर हुए अग्रसर  ,      
                       ये तो है  सांसों का परिसर  |
              रात जागती पलकों पर , 
                   सजों रही है सपने  अपने ,
                         उन सपनों की सीमा  में  ही ,
                             आया है कोई चलकर  |भोर की लाली छाई है ,
उगता है रवि धीरे - धीरे ,
कोई मस्ती में झूमा है,
बहती नदिया के तीरे,
इन सबसे अनजानी सी,
पवन उङ रही सर - सर - सर ।
काया - कल्प हुई मेघों की,
कुछ उङे कुछ बरस गए,
देख - देख रस्ता राही का,
राहों के मन तरस गए,
कोई भी जाना - अनजाना चेहरा,
बन जाएगा अपना सहचर ।
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