गूँज ! 
 
         धमाका ! आतंकवाद का ,
सिसक उठी मानवता ।
 
            गूँज ! उस धमाके की ,
                 दहला गयी इस दुनिया को ,
                     मानवता  को ,सिसक उठी मानवता ।
      आतर्नाद कर उठी इंसानियत 
           मगर ?
क्या सुनी सिसकियाँ किसी ने मानवता की ?
क्या सुना आतर्नाद किसी ने इंसानियत का ?
नहीं ! कौन सुनेगा ?
क्या सुनी सिसकियाँ किसी ने मानवता की ?
क्या सुना आतर्नाद किसी ने इंसानियत का ?
नहीं ! कौन सुनेगा ?
        बहरा बना दिया है सबको ,
धमाके की उस गूँज ने ।
              
धमाके की उस गूँज ने ।
        धमाका क्यों हुआ ?
आतंकवाद क्यों पनपा ?
भाई - भाई का हत्यारा क्यों बना ?
ताकत हासिल करना , मानव ने चाहा ,
क्यों नहीं प्यार से ,
मिल - जुल कर रहता ?
 
आतंकवाद क्यों पनपा ?
भाई - भाई का हत्यारा क्यों बना ?
ताकत हासिल करना , मानव ने चाहा ,
क्यों नहीं प्यार से ,
मिल - जुल कर रहता ?
           जीवन की नैया को ,
मिल - जुल कर खेता ?
आज माँ लोरियाँ सुनाना भूल गई है ,
धन कमाने के लिए वह ,
नौकरी जो करने लग गई है ।
 
मिल - जुल कर खेता ?
आज माँ लोरियाँ सुनाना भूल गई है ,
धन कमाने के लिए वह ,
नौकरी जो करने लग गई है ।
      घर और  बाहर की जिम्मेदारियों  ने ,
उसे भौतिकतावादी बना दिया है ,
उसकी लोरियों को अकस्मात ही ,
मौत की नींद सुला दिया है ।
 
उसे भौतिकतावादी बना दिया है ,
उसकी लोरियों को अकस्मात ही ,
मौत की नींद सुला दिया है ।
       जागो , माँ की लोरियों के मीठे स्वर ,
संसार में गुँजा दो ,
जिससे ये धमाके ,
मौत की नींद सो जाएँ ,
मानवता को न रूलाएँ ,
मानवता को न रूलाएँ ।
  
संसार में गुँजा दो ,
जिससे ये धमाके ,
मौत की नींद सो जाएँ ,
मानवता को न रूलाएँ ,
मानवता को न रूलाएँ ।
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