'तपती धरा'
ज्येष्ठ की तपती हुई,
दोपहर में धरा ,गर्म हो मचल गई,
मानो पिघल - पिघल गई ।
देखती चहुँ ओर ,
आए , कोई बचाए ,
थोङी सी , थोङी सी ठंडक पहुँचाए ।
कोई न था,
यहाँ - वहाँ , सब ओर,
आई पवन , स्वयं में मगन ।
फैला बाँहें , स्वागत किया धरा ने,
सिमट गई पवऩ , धरा के आगोश में ।
पर यह क्या ?
पवन भी गर्म थी,
धरा मानो सुलग उठी ।
कौन है जो उसे बचाए ?
मैं आऊँ ? एक मीठा स्वर,
देखा धरा ने , नन्हीं बूँद थी ।
पवन के साथ आए,
मेघों के आँचल से छिटकी थी,
हाँ ! बच्ची आओ , धरा ने बाँहें पसारीं ।
बूँद का स्पर्श , दे गया,
धरा को ताजगी भरी ठंडक,
मूँद लिए नयन धरा ने,
ठंडक के सुख को , पीने के लिए ।
तभी , अनगिनत नन्हीं बूँदें,
आ लिपटीं धरा से,
और धरा, खामोशी से,
स्वर्गिक आनंद , और ताजगी को समेटती,
भीगा आँचल लिए , नन्हीं बच्चियों का,
स्पर्श - सुख पाती रही ।
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