लिखा खत सूरज ने
सुनो - सुनो क्यों अभी तक ,मैं तो कब का जाग गया ,
रात का सारा अँधियारा ,मेरे आते ही भाग गया ,
पर तुम निद्रामग्न हो मानव ,अंधकार में डूबे हो ,
पेड़ - पौधे सब जागे मानव ,नदिया का पानी जाग गया |
मुझसे ,जल से जीवन उपजा ,पानी में और धरती पर ,
तुझे मिली अपर सम्पदा ,पानी में और धरती पर ,
हरे -भरे जंगल थे मानव ,वर्षा छम -छम आती थी ,
तभी तो इस धरती पर मानव ,नदिया कल -कल जाती थी |
तूने जंगल काटे मानव ,नदिया का पानी किया गंदा ,
प्रकृति का विनाश हुआ मानव ,क्या अब तू उससे पाएगा ?
प्रकृति हो रही क्रोधित मानव ,क्या तू अब बच पाएगा ?
कहीं बाढ़ है ,कहीं है सूखा ,तूने क्या ये कर डाला ?
डाल गंद नदिया सागर में ,पानी को गंद बना डाला |
स्वच्छ धरा ,स्वच्छ नदियाँ थीं ,पानी में जीव पनपते थे ,
पर तेरे कर्मों की मानव ,वो सब सजा भुगतते हैं ,
अभी संभल जा तू मानव ,नहीं तो बहुत पछताएगा ,
तेरे आने वाले कल में ,क्या कुछ भी बच पाएगा ?
तेरी आने वाली पीढ़ी के ,पास ना कुछ बच पाएगा ,
तूने सब बर्बाद किया है ,तू भी बर्बादी पाएगा ,
जीव -जंतु कुछ नहीं बचेंगे ,पेड़ -पौधे मिट जाएंगे ,
क्या ऐसी धरती पर मानव ,बच्चे तेरे रह पाएंगे ?
तुझे पता है जीवन में ,चार कल ही आते हैं ,
बचपन ,यौवन ,प्रौढ़ावस्था और बुढ़ापा ,
फिर तो मृत्यु निश्चित है ,
मेरी भी अब प्रौढ़ावस्था ,फिर मेरा बुढ़ापा आएगा ,
तू ही सोच जरा मानव ,क्या मृत्यु मेरी रोक पाएगा ?
गर मैं चला गया दुनिया से ,फिर अँधियारा छाएगा ,
तू भी मानव उसी समय ,अंधकार में खो जाएगा ,
इसीलिए तू अभी संभल जा ,लौट और दोस्त बन जा ,
अपनी प्रकृति ,अपनी धरा , अपनी नदिया ,सागर का ,
बचा ले मानव धरा को अपनी , सूरज अपना नया बना ,
मेरी ऊर्जा समेट कर मानव ,दे उसको आयाम नया ,
इसी को तू इकठ्ठा करके ,कर दे अब एक काम नया |
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